सरगम के सात सुरों से बनते नौरंग के गीत, अपनी सरगम ऐसी जिसमें रंग रहे न गीत ।
कान्हा के अधरों की सरगम पर बंसी आन बसी, हर बसी की तान सुरीली सरगम आन बसी ।
या अधर निहारूं ,रूप निहारूं, बंसी की या तान सुनूं , मनमोहन कैसा नाच नचाते ।
वन वन डोलूं, पनघट घट भटकूं , जमना के तीरे भी खोजूं , छलिया कयों छिप छिप जाते ।
अब तो दरस दिखाओ मोहन, तड़प हिया की बैरी जानो, तरस तरस क्यों दरस दिखाते ।
अधरन धर बंसी, बंसीधर काहे सौतन आन धरी, अधरन अमृत पान मिले, अधर में अधरन पिय काहे प्यास भरी ।
मन महिं आग लगावत सावन, भादौं बैरन आन भई , आछे दरस तुम्हारे कीने , पूरी आफत प्रान भई ।
भारत भूमि की माटी से उपजे देशी समाचार साहित्य, काव्य और संस्कृति का संकलन । नरेन्द्र सिंह तोमर ''आनन्द'' - प्रधान सम्पादक , ग्वालियर टाइम्स समूह , प्रधान कार्यालय - 42 गांधी कालोनी , मुरैैना म. प्र. व्हाटस एप्प नंबर 7000998037 एवं ई मेल पता : gwaliortimes@hotmail.com
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मंगलवार, 15 जून 2010
ब्रजभाषा में ग्वाल के छन्द भाग - 2 (प्रस्तुति नवीन चतुर्वेदी )
ब्रजभाषा में ग्वाल के छन्द भाग - 2
प्रस्तुति नवीन चतुर्वेदी
'ग्वाल' कवि का ही एक और छंद:-
गोकुल की खोर साँकरी में आज मेरी बीर,
बानक बनायो बिधि, ताहि कौन बरनें|
कोटिन उपायन ते राधिका मिली ही धाय,... और देखें
आज मनमोहनें, निसंक अंक भरनें|
'ग्वाल' कबि एते में, जसुधा पुकारी - लाल,
बाल परी पीरी, दगा दीनी अवसर नें|
मानौ कंज-केसर के हौज बीच, बोरा बोर -
कर कें निकारी कामदेव कारीगर नें||
प्रस्तुति नवीन चतुर्वेदी
'ग्वाल' कवि का ही एक और छंद:-
गोकुल की खोर साँकरी में आज मेरी बीर,
बानक बनायो बिधि, ताहि कौन बरनें|
कोटिन उपायन ते राधिका मिली ही धाय,... और देखें
आज मनमोहनें, निसंक अंक भरनें|
'ग्वाल' कबि एते में, जसुधा पुकारी - लाल,
बाल परी पीरी, दगा दीनी अवसर नें|
मानौ कंज-केसर के हौज बीच, बोरा बोर -
कर कें निकारी कामदेव कारीगर नें||
ग्वाल के ब्रजभाषी छन्द - 1 (प्रस्तुति नवीन चतुर्वेदी)
ब्रज भाषा में ग्वाल के छन्द भाग - 1
(प्रस्तुति नवीन चतुर्वेदी )
और बिस जेते, तेते प्रानन हरैया होत,
बंसी की धुन की कबू जात ना लहर है|
एक दम सुनत ही, रोम रोम गस जात,
ब्योम बार डारे, करे बेकली गहर है|
'ग्वाल' कबि तो सों, कर ज़ोर कर पूछ्त हों,
साँची कह दीजो, जो पे मो ही पे महर है|
होठ में, कि फूंक में, कि आंगुरी की दाब में, कि-
बाँस में, कि बीन में, कि धुन में जहर है||
(प्रस्तुति नवीन चतुर्वेदी )
और बिस जेते, तेते प्रानन हरैया होत,
बंसी की धुन की कबू जात ना लहर है|
एक दम सुनत ही, रोम रोम गस जात,
ब्योम बार डारे, करे बेकली गहर है|
'ग्वाल' कबि तो सों, कर ज़ोर कर पूछ्त हों,
साँची कह दीजो, जो पे मो ही पे महर है|
होठ में, कि फूंक में, कि आंगुरी की दाब में, कि-
बाँस में, कि बीन में, कि धुन में जहर है||
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